ख़लदान की सरज़मीन से कई फ़र्लांग दूर, जंगल की उस पुर-असरार वादी में, जहां दरख़्तों की शाख़ें आसमान से सरगोशियाँ करती थीं और ज़मीन पर पसरा साया अंधेरे की चादर सा लगता था—दो अरबी नस्ल के नफ़ीस घोड़े सरपट दौड़े जा रहे थे। उनके नालों की आवाज़ उस वीरान वादी में जैसे कोई क़दीम नग़्मा बिखेर रही थी।
इन घोड़ों पर सवार थे दो अज़ीम शख़्सियतें। एक—ख़लदान का शहंशाह शाहज़मां, जिसकी सूरत में जमाल और जलाल एक साथ झलकता था। चौड़ी पेशानी, आँखों में दूरअंदेशी की चमक, और चेहरे पर वो रौब कि फ़िज़ा में ताबेदारी का आलम तारी हो जाए। दूसरा—उसका वज़ीर-ए-आ़ला, शेरशाह ख़दानी, जिसकी ज़बान में शहद, लेकिन दिमाग़ तलवार से तेज़। लिबास साफ़-सुथरा, आंखें पढ़ी हुई किताबों की तरह पुर-असरार और हर कदम में एक ठहराव, जो सियासी दांव-पेंचों से तपकर आया हो।
ये महज़ बादशाह और वज़ीर नहीं थे—ये दो दिलों के साथी, दो यार-ए-वफ़ादार थे। बचपन की गलियों से चली ये दोस्ती अब तख़्त और ताज के बीच भी ज़िन्दा थी। आज वे इस जंगल में तन्हा आए थे—बिना किसी क़ाफ़िले के, बिना शाही तामझाम के। मक़सद सिर्फ़ शिकार नहीं था, बल्कि वो बातें जो सियासी महफ़िलों में अदब से लिपट कर दबा दी जाती हैं।
"वज़ीर-ए-आ़ला, देखिए उस हिरन को! क्या फुर्ती है इस नन्ही जान में," शहंशाह ने अपने घोड़े को हल्की ऐड़ लगाते हुए कहा।
शेरशाह ने नरम लहजे में जवाब दिया, "जान के लिए भागता शिकार और शौक़ के लिए दौड़ता शिकारी—इनमें बराबरी कैसे मुमकिन है जहांपनाह?"
शाहज़मां ने मुस्कुरा कर कहा, "अगर शिकार यूँ ही हासिल हो जाए तो लज़्ज़त किस बात की रहे?"
घोड़े पे सवार ये दोनों सायों की तरह जंगल की भूलभुलैया में दौड़ते रहे, मगर वो ज़ेरक हिरन नज़रों से ओझल हो गया। कुछ पल की ख़ामोशी के बाद शहंशाह ने लगाम ढीली करते हुए कहा, "वज़ीर-ए-आ़ला! लगता है वो हमें चकमा देकर निकल गया।"
शेरशाह ने हल्के लहजे में मुस्कराते हुए कहा, "अब आगे का इरादा क्या है, जहांपनाह?"
"इरादा तो वही है जो सुबह तै किया था। शिकार के बग़ैर लौटना हमारी शहंशाही को ज़ेब नहीं देता। आज का दस्तरख़्वान उसी के नाम है। चलिए, आगे बढ़ते हैं।"
अब उनके घोड़े मद्धम रफ़्तार से जंगल की पगडंडियों पर बढ़ रहे थे। दोनों निगाहें हर हरकत पर थीं। तभी अचानक एक झाड़ी की आड़ से सरसराहट सुनाई दी। दोनों सवार फ़ौरन ज़मीन पर उतरे, और धीमे क़दमों से उस सिम्त बढ़े।
झाड़ियों की ओट से उन्होंने जो मंज़र देखा, वो किसी अफ़साने की तरह दिल में उतर गया। वही हिरन, लेकिन अब वो अपनी मां की गोद में था। वो बूढ़ी हिरनी अपने नन्हे को चाटकर जैसे तसल्ली दे रही थी—“तू अब महफ़ूज़ है, मेरी जान…”
शाहज़मां उस मंज़र को देखकर जड़ हो गया। उसकी आंखों में वो तस्वीरें तैरने लगीं जिन्हें उसने ताज के पीछे कहीं दफ़न कर दिया था।
"जहांपनाह...!" वज़ीर ने फुसफुसाते हुए कहा, "देखिए... वही शिकार..."
शाहज़मां की आवाज़ आई, लेकिन लहजा बदल चुका था। "वज़ीर-ए-आ़ला, चलिए... वापस चलते हैं।"
"क्या कोई परेशानी पेश आई है, जहांपनाह?" शेरशाह ने हैरत से पूछा।
शहंशाह कुछ लम्हे ख़ामोश रहा, फिर बोला, "औलाद की तड़प क्या होती है, मैं जानता हूं, वज़ीर-ए-आ़ला। बचपन में जब मुझे शाही तालीम के लिए मेरी मां की गोद से जुदा किया गया था, तो मैंने उस दर्द को महसूस किया था। उस वक़्त समझ नहीं पाया था... लेकिन आज, उस हिरनी की आंखों में वही बेबस मोहब्बत देखी है।"
उसने आगे बढ़ते हुए कहा, "शिकार तो बहुत हैं दुनिया में, मगर किसी मां की गोद उजाड़ने की इजाज़त मेरा ज़मीर नहीं देता।"
शेरशाह ने एक लंबी नज़र अपने शहंशाह पर डाली। ये वही शख़्स था जो कभी भुने हुए गोश्त के बग़ैर दस्तरख़्वान पर नहीं बैठता था, और आज महज़ एक नज़र से अपनी भूख को कुर्बान कर चुका था।
जंगल की हवा अब नर्म हो गई थी। दरख़्तों की शाख़ें जैसे झुककर उस रहमदिल बादशाह को सलामी दे रही थीं। और वज़ीर—वो बिना कोई सवाल किए, अपने शहंशाह के पीछे-पीछे चलता चला गया—क्यूंकि वफ़ा करने वालों को सबूत की ज़रूरत नहीं होती।
फारस से तक़रीबन बीस रोज़ की दूरी पर, एक ख़ूबसूरत और दौलतमंद सरज़मीन थी—ख़लदान। समंदर की हल्की नम हवा इसकी सरहदों को चूमती हुई गुजरती थी, और रेत के ज़र्रों पर सूरज ऐसे उतरता था जैसे कोई नूरानी चादर बिछा दी गई हो। ऊँचे-ऊँचे खजूर के दरख़्त, महकते हुए गुलाबों के बाग़, और चमकते हुए संगमरमर के महल इस रियासत की शोहरत की चश्मदीद मिसाल थे।
ख़लदान महज़ एक मुल्क नहीं था—वो एक ख़्वाब था, एक तराशा हुआ हीरा जिसे खुदा ने अपने दस्ते-ख़ास से तराशा था। इस रियासत के बाज़ारों में हर वक़्त रौनक रहती थी; चिलमन के पीछे से हँसती लड़कियाँ, मस्जिदों से उठती अज़ान की सदा, और कूचों में गूंजते फेरीवालों की पुकार—सब कुछ इस शहर को ज़िंदा रखता था।
इस सल्तनत का हुक्मरान था—शाहजमां, एक दिलेर, दूरअंदेश और नर्मदिल बादशाह। उसकी आँखों में रियासत की फिक्र थी, और दिल में अपनी रियाया के लिए मुहब्बत। उसका चेहरा गेंहुआ रंग लिए हुए था, जिस पर उम्र के हल्के निशान थे, लेकिन रौब और शान का वो ताज अब भी उसके माथे पर चमकता था। उसके लिबास हमेशा बारीक रेशमी कपड़ों से बने होते, जिन पर ज़रदोज़ी की बारीक कढ़ाई होती। उसकी चाल में नर्मी थी, मगर बातों में तासीर।
वज़ीर-ए-आ़ला शेरशाह ख़दानी—बचपन का दोस्त, और आज रियासत का सबसे ज़हीन सलाहकार। लंबा क़द, हल्की दाढ़ी, आँखों में तेज़ी और लहजे में वज़न। वह वह शख्स था जो ताज के नीचे के बोझ को समझता था। उसके लिए ख़लदान महज़ एक मुल्क नहीं, बल्कि एक अमानत थी जो उसके बादशाह के हाथों में थी।
शिकारगाह से वापसी एक ख़ामोश सफ़र था। न कोई बातचीत, न कोई शोर—सिर्फ घोड़ों की धीमी टापें और जंगल की साँय-साँय करती हवाएं। शाहजमां की निगाहें झुकी थीं, मगर ज़हन में एक तूफ़ान था।
‘उस हिरण की माँ की आँखों में कुछ था... एक दर्द... जो मेरी रूह में उतर गया।’ वह सोच रहा था। शिकार से पहले उसका दिल गर्म था, अब एक अजीब ठंडक ने उसे घेर रखा था। क्या यह वही बादशाह था जो भुने हुए गोश्त के बिना दस्तरख़्वान पर नहीं बैठता था?
महल लौटते वक्त शाम ढलने लगी थी। सूरज अपने आखिरी किरनें छोड़ रहा था जब वो दरबार के ऊँचे बुर्ज से गुज़रे। सिपाही सलाम बजा रहे थे, खिदमतगार अदब से सिर झुकाए हुए थे। मगर शाहजमां की नज़रें कहीं और थीं।
रात को, जब महल के शाही बाग़ में वो अकेला टहल रहा था, हवा में चंदन और गुलाब के फूलों की खुशबू तैर रही थी। तभी शेरशाह ख़दानी चुपचाप उसके पास आया। वह जानता था, आज बादशाह से बात करना जरूरी है—एक दोस्त की तरह, एक वज़ीर की तरह।
"मेरे शहंशाह... मुझसे आपकी यह हालत देखी नहीं जाती। आप खुद को इस तरह खो देंगे।" शेरशाह ने नम लहजे में कहा।
शाहजमां ने चुपचाप एक फूल की पंखुड़ी को उंगलियों से सहलाते हुए जवाब दिया, "हमारे इस ग़म की दवा शायद किसी के पास नहीं वज़ीर-ए-आ़ला।"
"ऐसा न कहें मेरे आका... खुदा की रहमत से बड़ी कोई ताबीर नहीं होती," शेरशाह ने अपना दिल खोल दिया।
शाहजमां ने एक गहरी साँस ली, "चार चार बेगमें हैं, लेकिन ख़ुदा ने मुझे एक भी वारिस नहीं बख़्शा... अब उम्र भी ज़्यादा हो चली है... साया लंबा होता जा रहा है लेकिन रास्ता छोटा..."
शेरशाह ने सिर झुकाया, और बोला, "अगर आपकी इजाज़त हो तो ये खादिम कुछ अर्ज़ करना चाहता है..."
"कहिए, वज़ीर-ए-आ़ला," बादशाह ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।
"अपने महल के दरवाज़े खोल दीजिए, मेरे आका। सूफी-औलिया, दीनी आलिम, और रूहानी बुज़ुर्गों को बुलाइए। ज़रूरतमंदों की मदद कीजिए, हर शुक्रवार को दस्तरख़्वान सजाइए, अनाथों को सीने से लगाइए। जो मालिक दो जहां का है, वो आपकी इन नेकियों का जवाब ज़रूर देगा..."
कुछ देर बादशाह खामोश रहा। फिर, जैसे उसकी आँखों में एक नई रौशनी उतर आई। उसने सिर हिलाया, "अब वक्त आ गया है... मैं उस दर पर सजदा करूँ जहाँ से हर मुराद पूरी होती है।"